Ramadan: यादों के पन्नों से, पहले इस तरह सहरी में रोज़ेदारों को जगाते थे लोग

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Ramadan: यादों के पन्नों से, पहले इस तरह सहरी में रोज़ेदारों को जगाते थे लोग

Ramadan: यादों के पन्नों से, पहले इस तरह सहरी में रोज़ेदारों को जगाते थे लोग

Ramadan: यादों के पन्नों से, पहले इस तरह सहरी में रोज़ेदारों को जगाते थे लोग


मुरादाबाद। आधुनिक जीवन में तकनीक का प्रभाव हर जगह दिखता है, और रमजान के दौरान भी यह बदलाव स्पष्ट है। पिछले 30 वर्षों में, सहरी के लिए जगाने के तरीके भी बदल गए हैं। ‘UPUKLive’ से बातचीत में लोगों ने तीस वर्ष पहले के तौर-तरीकों पर चर्चा की। 

बचपन की यादें ताजा करते हुए ताजुल इस्लाम, हाजी अबरार आदि ने बताया कि सहरी का वक्त होने पर एक बूढ़ा आदमी कंधे पर लाठी, हाथ में लालटेन लिए घर-घर जाकर कुंडी खटखटाने के साथ जोर-जोर से ‘सहरी का वक्त हो चुका है, सब लोग जाग जाओ’ कहते हुए आगे बढ़ जाता था। उसके बाद लोगों को जगाने का सिलसिला शुरू होता था। 

गांव के बच्चे शाही मस्जिद की छत पर बहुत बड़ नगाड़े को डंको से बजाते थे, जिसकी आवाज आसपास के गांवों तक जाती थी। मस्जिद की छत पर एक स्टैंड पर लोहे की लेन तार से बांधकर लटकी हुई होती थी, जिसे बच्चे छोटी हथौड़ी से बजाते थे। उस घंटी की टन-टन मौहल्ले भर के लोगों को जगाने के लिए मजबूर कर देती थी। वक्त बदला, तौर तरीके बदले और इसकी मस्जिदों पर लगे लाउडस्पीकर इस्तेमाल होने लगे। 

पिछले दो-तीन वर्षों की ही बात करें तो मस्जिदों व अन्य स्थानों पर लगे लाउडस्पीकरों पर सहरी में लगभग दो बजे से सहरी में जगाने का ऐलान करके बीच-बीच में नात-ए-पाक पढ़ी जाने लगीं। लेकिन इस वर्ष यह सिलसिला भी लगभग खत्म हो चुका है। अब रोज़दारों को मस्जिदों में लगा सायरन जगाता है। जबकि कुछ बंद घरों में आबादी से दूर के घरों में रहने वाले रोज़दार मोबाइल व अलार्म घड़ी से ही सहरी में जागते हैं। कहीं-कहीं बारूदी गोला भी सहरी में जगाने व सहरी खत्म होने के वक्त छोड़ा जाता है।

आज के तरीके:

  • अलार्म और मोबाइल ऐप: आजकल, लोग सहरी के लिए अलार्म या मोबाइल ऐप का उपयोग करते हैं।
  • सोशल मीडिया: कुछ लोग सोशल मीडिया पर सहरी के समय की याद दिलाने वाले पोस्ट और वीडियो शेयर करते हैं।
  • व्यक्तिगत प्रयास: लोग सहरी के लिए खुद को जगाने के लिए ज़िम्मेदार बन गए हैं। 

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